कंक्रीट के पहाड़

Back to Resources
First published on

ऐन कैथ्रीन श्नायडर

कंक्रीट के पहाड़

ऐन कैथ्रीन श्नायडर

This article by Ann-Kathrin Schneider, translated by Manshi Asher, appeared on www.raviwar.com/news in June 2009.

आज विश्व पर जलवायु परिवर्तन के कारण संकट के बादल मंढ़रा रहे हैं लेकिन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले हिमालय के पर्वतीय इलाकों में बढ़ते तापमान के असर सबसे साफ़ नज़र आ रहे है। एशिया और हिमालय की महानदियों – सिन्धु, गंगा और नू – के तेज़ी से पिघलते ग्लेशीयर इसका प्रत्य्क्श प्रमाण हैं।

हिमालय की इन नदियों को आज भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान देश की सरकारें दक्षिण एशीया के विद्युत उत्पादन केंद्रों में तबदील करने पर तुली हैं । वर्तमान में कई पन बिजली परियोजनाएँ हिमालय की उछलती-कूदती और तेज़ बहाव वाली नदियों पर बन चुकी हैं और कई हज़ारों प्रस्तावित हैं। आने वाले 20 वर्षों में कम से कम 150000 मेगा-वाट पैदा करने के लिये यह चार देश जल विद्युत परियोजनाओं के केंद्र के रूप में उभरेंगे।

जहाँ एक ओर इस से हिमालय की नदी-घाटियों की अखंडता और इन पर निर्भर आजीविकाओं पर प्रभाव पड़ेगा वहीं दूसरी ओर ऐसी परियोजनाएँ के कई आकस्मिक परिणाम हो सकते हैं जो कि मौसम परिवर्तन से सीधी तरह से जुड़े हैं।

जलवायु परिवर्तन से ग्लेशीयरों के पिघलने तथा नदी जलस्तर के बढ़ने, बाढ़ आने और बादल फटने जैसी घटनाएँ बढ जाएँगी। जैसे जैसे पानी और नदियों कि स्थिति में परिवर्तन आयेगा जल वायु और मौसम चक्र का पुर्वानुमान लगाना कठिन हो जाएगा। इसका सीधा प्रभाव स्वयं बांध और जल विद्युत परियोजना की नियोजन प्रक्रिया पर पड़ेगा जो की पूरी तरह से नदि बहाव के पूर्व आंकड़ों पर आधारित होती हैं। मौसम के अनुसार नदी के बहाव का अनुमान लगाना कठिन हो जायेगा। हम केवल एक ही बात का अनुमान लगा पायेंगे और वह ये कि जब ग्लेशीयर पिघलेंगे तो पहले पानी का बहाव बढ़ेगा और फिर लम्बे समय में नदियाँ सूख जाएँगी।

आज हिमालय क्षेत्र में बांध और जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण कार्य के लिये जो जानकारियां अनिवार्य हैं वही हमारे पास उप्लब्ध नहीं। उदाहरण के तौर पर – यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आने वाले समय में कितने और किस तीव्रता के बाढ़ आयेंगे और बांध कि दिवारें इन्हें झेलने में कितनी सक्षम होंगी।

दिसम्बर २००८ में छ्पी अपनी रपट ’माउन्टेन्स आफ़ कंक्रीट’

में, पानी के शोधकर्ता, श्रीपद धर्माधिकारी, बताते हैं कि हिमालय क्षेत्र में बन रहीं अधिकतर विद्युत परियोजनाएँ नदियों पर जल्वायु परिवर्तन के प्रभावों का आंकलन किये बिना ही बनाई जा रही हैं। “दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी इन जोखिमों का आंकलन नहीं किया जा रहा, ना एकल परियोजनाओं के लिये और ना ही एक नदि पर निर्मित कई सैंकड़ों परियोजनाओं के लिये संचीय प्रभावों का आंकलन।”

इन क्षेत्रों कि सरकारों ने जलवायु परिवर्तन जैसी संकट को अन्देखा कर अपना ध्यान केवल जल विद्युत परियोजनाओं से होने वाले फ़ायदों पर केंद्रित रखा है। नेपाल और् भूटान की सरकारें बड़े बांधों के माध्यम से भारत जैसे देश को बिजली बेच कर आय बढ़ाने और “हाय्ड्रो – डालर” कमाने की होड़ में हैं। वहीं भारत भी ना केवल अपने पड़ोसी देशों से बिजली खरीदने के लिये तैयार है, बल्कि अपने खुद के पहाड़ी क्षेत्रों को जल विद्युत इलाकों के रूप में ज़ोरों शोरों से विकसित कर रहा है

हालांकि नेपाल में केवल ४०% ग्रामीण आबादी के लिये बिजली की आपूर्ति हो पाती है, फिर भी यहाँ लगभग सारी बड़ी विद्युत परियोजनाएँ भारत को बिजली निर्यात करने के उद्देश्य से बन रहीं है। इन में से प्रमुख हैं – पश्चिम सेती, अप्पर कर्नाली और अरुण III | आश्चर्य की बात नहीं कि नेपाल में इन परियोजनाओं को विरोध का सामना करना पड़ रहा है- ना केवल विस्थापित और प्रभावित होने वाले समुदायों से बल्की अन्य बुद्धिजीवियों से भी, जिनका मानना है की इन परियोजनाओं से अपेक्षित लाभ भी नेपाल सरकार के हाथ नहीं लगेंगे। वित्तीय विश्लेषक, रतना सन्सार श्रेश्ठार का कहना है, “जब पश्चिम सेती जैसी परियोजनओं का अधिकतर निवेश विदेश से आ रहा है और सरकार का हिस्सा केवल १५% है, तो स्पष्ट है कि नेपाल को मुनाफ़े का छोटा हिस्सा ही मिलेगा। इसके अलावा विदेशी बैंको से लिये गये कर्ज़ का असल और सूद मिलाएं तो नेपाल सरकार की आय के सपने तो पूरे होने से रहे।”

भारत में बिजली की बढ़ती मांग की वजह से जल-विद्युत परियोजनाओं को अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। भारत जैसे देश में ऊर्जा कि खपत पूरी नहीं हो पा रही। २००७ में कुल ऊर्जा की मांग 108,886 मेगा-वाट थी जिसमें से केवल 90,793 मेगा-वाट की पूर्ती हो पाई – कुल मिला कर 16% की कमी रही। आज भी भारत में एक बड़े तबके को बिजली नहीं मिल पाती। २००६ के सरकारी आंकड़ो के अनुसार 4 में से 1 भारतीय गाँव बिजली से वन्चित है।

परंतु बिजली के इस अभाव का कारण उसके उत्पादन में कमी तो नहीं – खासकर जब भारत में ऊर्जा की सप्लाइ और वितरण में ही कम से कम 35 से 45 % बिजली का घाटा हो जता है। पिछले कुछ समय में ऊर्जा के बढ़ते दामों और घटती सबसिडि की वजह से भी गरीब लोगों की बिजली तक पहुंच कम हुई है। विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्री होने से यह कोई ज़रूरी नहीं कि बिजली गाँव-गाँव तक पहुँच जायेगी। इसके उलट पहाड़ी क्षेत्रों, जहाँ पर यह विद्युत परियोजनाएँ बन रहीं हैं, में निर्माण कार्य में निवेश ज़्यादा होने से ऊर्जा का दाम और भी बढ जायेगा।

हिमालय क्षेत्र में सबसे अधिक निवेश वाली परियोजना है पाकिस्तान में सिन्धु नदी पर प्रस्तवित 4500 मेगा-वाट का दियामर-भाषा बांध जो १२.६ बिलीयन डालर की लागत में बनेगा। पाकिस्तानी सरकार पिछ्ले दो वर्षों से इस परियोजना के लिये निवेशकों की तलाश में है परन्तु आज तक असफ़ल रही। नवंबर २००८ में पाकिस्तान के राष्ट्रीय आर्थिक काउन्सिल ने इस परियोजना के लिये १.५ बिलीयन डालर की राशी मन्ज़ूर की थी और देश के जल मंत्री ने घोषित किया की चीनी कम्पनियों द्वारा बाँध का निर्माण किया जायेगा और कुछ अरब देश भी इस में पूंजी डालेंगे। उसी दौरान विश्व बैन्क के इस निर्णय, कि वह बांध निर्माण के लिये आर्थिक सहायता नहीं देगा, से पाकिस्तान सरकार की इस परियोजना को काफ़ी ध्क्का लगा।

ियामर-भाषा बांध, एक मात्र परियोजना नहीं जिसके लिये पूंजी निवेश के लाले पड़े हुए हैं। विश्व में आर्थिक मंदि के चलते अधिकतर जल विद्युत परियोजनओं को इस मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। अपनी रपट में श्रीपद धर्माधिकारी दर्शाते हैं कि भारत की ग्यारव्ही पांच वर्षीय योजना द्वारा प्रस्तावित विद्युत क्षेत्र की योजनाओं के लिये लग-भग ४०% तक निवेश की कमी हो रही है।

बढ़ते तापमान और जलवायू परिवर्तन के साथ साथ इन प्रस्तावित परियोजनाओं को पूँजी की कमी की मार भी झेलनी पड़ रही है। इसके अलावा विस्थापित और प्रभावित समुदायों द्वारा विरोध और तीव्र आंदोलनों के चलते नेपाल में पश्चिम सेती और भारत में ३००० मेगा-वाट की दिबांग (अरुणाचल प्रदेश) जैसी बड़ी परियोजनाएँ लटकी पड़ी हैं। दिबांग परियोजना के लिये पर्यावरण जन-सुनवाई को पुरज़ोर विरोध के कारण, एक नहीं, पर कई बार प्रशासन द्वारा निरस्त किया गया है और सिक्किम की राज्य सरकार ने भी हाल में तीस्ता नदी पर प्रस्तावित, ४ परियोजनाओं को स्थानीय विरोध की वजह से खारिज किया।

बढ़ते विरोध के कारण तो स्पष्ट हैं – सरकारों द्वारा सामाजिक व पर्यावर्णीय प्राभावों की अन्देखी और विकास की रूप रेखा व निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागेदारी सुनिश्चित ना करना। धर्माधिकारी की रपट का इशरा एक ही तरफ़ है “हिमालय की हर एक नदि पर प्रस्तावित हर परियोजना का विस्तृत पुनःआंकलन अनिवार्य है।”

ऐन कैथ्रीन श्नायडर ’इन्टरनैशनल रिवर्स नेटवर्क’ में दक्षिण एशीया कार्यक्रम निर्माता तथा विश्लेषक हैं।

िन्दी अनुवाद – मान्शी आशर, पर्यावरण शोध व कार्यकर्ता